विकास की अवधारणा एवं और इसका अधिगम से सबंध|Vikas ki Avdharna

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विकास गर्भाधान से लेकर जीवनपर्यन्त तक चलता है। विकास में होनेवाले परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक, मानसिक और संवेगात्मक होते है।  विकास में होने वाले परिवर्तन गुणात्मक होते है।  विकास-क्रम प्राणी को परिपक़्व अवस्था प्रदान करता है।  विकास परिपक़्वता और परिवर्तनों की श्रृंखला है।  विकास को क्रमिक परिवर्तनों की श्रृंखला कहा जाता है, इसके फलस्वरूप व्यक्ति में नविन विशेषताओं का उदय होता है, पुरानी विशेषताओं की समाप्ति हो जाती है। 

 

  विकास में होनेवाले परिवर्तन रचनात्मक और विनाशात्मक दोनों प्रकार के होते है।  प्रारंभिक अवस्था में होनेवाले परिवर्तन रचनात्मक होते है। उत्तरार्ध में होनेवाले परिवर्तन विनाशात्मक होते है।  रचनात्मक परिवर्तन प्राणी में परिपक़्वता लाते है और विनाशात्मक परिवर्तन उसे वृद्धावस्था की और ले जाते है।  मानव का शारीरिक विकास दो दिशाओं में होता है, मस्काधोमुखी विकास और निकट दूर विकास क्रम। मस्काधोमुखी विकास सिर का विकास होता है बाद में धड़ तथा निचले भागों का विकास होता है।  निकट दूर विकास-क्रम में शारीरिक विकास पहले केंद्रीय भागो में प्रारंभ होता है इसके बाद केंद्र से दूर के भागो में होता है।

 

विकास-क्रम में कोई भी बालक पहले सामान्य क्रिया करता है इसके  बाद  विशेष क्रिया की और अग्रेसर होता है।  प्रत्येक बालक की विकास-दर तथा प्रतिमानों में व्यक्तिगत भिन्नता पायी जाती है।  शरीर के विभिन्न अंगो के विकास की गति समान नहीं होती है।  विकास परिपक़्वता और शिक्षण दोनों का परिणाम होता है। बालक के विकास में पोषण महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संतुलित और पौष्टिक भोजन (प्रोटीन, वसा, खनिज-लवण, विटामिन) शारीरिक व् मानसिक विकास में सहाय होता है। 

 

 

बालक के विकास को प्रभावित करनेवाले तत्व :-

 

  पोषण, बुद्धि, यौन, अन्तःस्रावी ग्रंथियाँ, प्रजाति, रोग एवं चोट, घरका वातावरण, आस-पडोश का वातावरण, सांस्कृतिक वातावरण तथा शुद्ध वायु एवं प्रकाश।  शैशवावस्था शिशु के 'समायोजन की अवस्था' कहलाती है, क्योंकि इस अवस्था में शिशु गर्भाशय के आंतरिक वातावरण से निकलकर बाह्य वातावरण के साथ समायोजन का प्रयास करता है।  

 

 

विकास के क्रम में शैशवावस्था की मुख्य विशेषताएँ:-

 

  अपरिपक़्वता, पराश्रितता, संवेगशीलता, व्यक्तिगत भिन्नता इत्यादि। 

 

बचपनावस्था की विशेषताएँ:-

 

  खतरनाक अवस्था, अजीबोगरीब अवस्था, आत्मनिर्भरता की अवस्था, उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास, पुनरावृति की प्रवृति, आत्मकेंद्रित और स्वप्रेमी, नैतिकता का अभाव, अनुकरण की प्रवृति, मानसिक प्रक्रियाओं के विकास में तीव्रता, सामाजिक भावना का उदय। 

 

 पूर्व बाल्यावस्था को तीव्र विकास की अवस्था, स्कूल पूर्व की अवस्था, समूह पूर्व की अवस्था और जिज्ञासु प्रवृति की अवस्था कही जाती है।  

 

पूर्व बाल्यावस्था में बालक अपनी क्रियाओं में हस्तक्षेप करना पसंद नहीं करता है। वह सवतंत्र रूप से अपने अनुसार कार्य करना चाहता है। 

 

विकास के क्रम में उत्तर बाल्यावस्था को प्रारम्भिक स्कूल की आयु, चुस्ती की आयु, गन्दी आयु, समूह आयु, सारस अवस्था और नैतिक विकास की आयु इत्यादी की अवस्था कहा जाता है। 

 

 

 

विकास के क्रम में किशोरावस्था को सुनहरी अवस्था कहा जाता है। 

 

किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताऍ :-

 

 यह परिवर्तन की अवस्था है। 

 इस अवस्था में 'विषमलिंगी भावना' का विकास होता है। 

इस अवस्था में बालक में कल्पना की प्रधानता होती है। 

यह तनाव और परेशानी की अवस्था है। 

यह पूर्ण वृद्धि की अवस्था कहलाती है। 

यह आत्मनिर्भरता और व्यवसाय चुनने की अवस्था होती है। 

 

 

वृद्धि गर्भावस्था से प्रौढ़ावस्था तक चलती है। 

 

वृद्धि में होनेवाले परिवर्तन शारीरिक होते है। 

 

वृद्धि के दौरान होनेवाले परिवर्तन मात्रात्मक होते है। 

 

वृद्धि में होनेवाले परिवर्तन रचनात्मक होते है। 

 

विकास कभी नहीं समाप्त होने वाली प्रक्रिया है, यह निरंतरता के सिद्धांत से सबंधित है। 

 

विकास एवं वृद्धि के मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार निम्न कक्षाओं में शिक्षण खेल विधि पर आधारित होती है। 

विकास में वृद्धि का तातपर्य है बालकों में सिखने, स्मरण तथा तर्क इत्यादि की क्षमता में वृद्धि होना। 

गर्भ में बालक को विकसित होने में  280 दिन लगते है।  नवजात शिशु का भार (वजन) 7 पाउंड होता है। 

 

 

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