बच्चों का सोचना एवं सीखना
प्रतिमाओं, प्रतीकों, संप्रत्ययों, नियमों एवं अन्य मध्यस्थ इकाइयों के मानसिक जोड़-तोड़ को चिंतन/सोचना कहा जाता है।
सोचना/चिंतन मुख्य रूप से दो प्रकार के होते है- स्वपरायण चिंतन तथा यथार्थवादी चिंतन।
स्वपरायण चिंतन वैसे चिंतन को कहा जाता है जिसमें व्यक्ति अपने काल्पनिक विचारों एवं इच्छाओं की अभिव्यक्ति करता है। स्वप्न, स्वप्न चित्र तथा अभिलाषाकल्पित चिंतन इत्यादि सभी स्वपरायण चिंतन के उदाहरण है।
यथार्थवादी
चिंतन वैसे चिंतन को कहा जाता है जिसका सबंध वास्तविकता से होता है।
यथार्थवादी
चिंतन तीन प्रकार के होते है- (a) अभिसारी चिंतन,
(b) सर्जनात्मक
चिंतन,
(c) आलोचनात्मक
चिंतन ।
अभिसारी चिंतन
में व्यक्ति दिए गए तथ्यों के आधार पर कोई सही निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश करता
है। इसे निगमनात्मक चिंतन भी कहा जाता है।
सर्जनात्मक
चिंतन में व्यक्ति दिए गए तथ्यों में अपनी ओर से कुछ नया जोड़कर एक निश्चित
निष्कर्ष पर पहुंचता है। इसे आगमनात्मक चिंतन कहा जाता है।
आलोचनात्मक
चिंतन में व्यक्ति किसी वस्तु, घटना या तथ्य की सच्चाई को स्वीकार करने से पहले उसके गुण-दोष की परख कर लेता
है।
चिंतन के साधन
है- प्रतिमा,
भाषा, संप्रत्यय, प्रतिज्ञप्ति ।
थार्नडाइक ने
सीखने के तीन मुख्य नियम प्रतिपादित किये- ततपरता का नियम, अभ्यास का नियम तथा प्रभाव नियम और पाँच
सहयोगी नियम प्रतिपादित किये है- मानसिक स्थिति का नियम, साहचर्य परिवर्तन का नियम, आंशिक क्रिया का नियम, बहु-प्रतिक्रिया का नियम तथा समानता का नियम।
ततपरता के नियम
से यह पता चलता है कि सीखने वाले व्यक्ति किन-किन परिस्थितियों में संतुष्ट रहते
है तथा किन-किन परिस्थितियों में उनमे खीझ उतपन्न होती है।
अभ्यास का नियम
यह बताता है कि अभ्यास करने से उद्दीपन तथा अनुक्रिया का सबंध मजबूत होता है तथा
अभ्यास रोक देने से यह सबन्ध कमजोर पड़ जाता है। या उसका विस्मरण हो जाता है।
प्रभाव नियम के
अनुसार व्यक्ति किसी अनुक्रिया या कार्य को उसर्क प्रभाव के आधार पर सीखता है।
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